Ad

Showing posts with label गौतम-महावीर संवाद. Show all posts
Showing posts with label गौतम-महावीर संवाद. Show all posts

Monday, August 3, 2015

गौतम-महावीर संवाद

गौतम-महावीर संवाद

प्रभु महावीर ने अपना निर्वाण समय सन्निकट जान प्रथम गणधर इंद्रभूति को देव शर्मा नामक ब्राह्मण को प्रतिबोध देने के लिए अन्यत्र भेज दिया।अपने चिर-अन्तेवासी गौतम को दूर भेजने का कारण यह था की भगवान के निर्वाण के समय गौतम अधिक स्नेहाकुल ना हों।इंद्रभूति ने भगवान की आज्ञा के अनुसार देव शर्मा को प्रतिबोध दिया।प्रतिबोध देने के पश्चात वे प्रभु के पास लौटना चाहते थे पर रात्रि हो जाने के कारण लौट नहीं सके।अर्धरात्रि के पश्चात उन्हें भगवान के निर्वाण का सन्देश मिला।भगवान के निर्वाण का सुनते ही इंद्रभूति अति खिन्न हो गए और स्नेह-विह्वल हो कहने लगे - " भगवन ! यह क्या ? आपने मुझे इस अंतिम समय में अपने से दूर क्यों किया ? क्या मैं आपको मोक्ष जाने से रोकता था, क्या मेरा स्नेह सच्चा नहीं था अथवा क्या मैं आपके साथ होकर मुक्ति में आपका स्थान रोकता ?अब मैं किसके चरणों में प्रणाम करूँगा और कहाँ अपनी मनोगत शंकाओं का समाधान प्राप्त करूँगा ? प्रभो ! अब मुझे गौतम कौन कहेगा ? " इस प्रकार भावना-प्रवाह में बहते बहते गौतम ने स्वयं को संभाला और विचार किया _ " अरे ! यह मेरा कैसा मोह ? भगवान तो वीतराग हैं, उनमें कैसा स्नेह ! यह तो मेरा एकपक्षीय मोह है।क्यों नहीं मैं भी प्रभु चरणों का अनुगमन करूँ, इस नश्वर जगत् के दृश्यमान पदार्थों में मेरा कौन है ? " इस प्रकार चिंतन करते हुए गौतम ने उसी रात्रि के अंत में घाति कर्मों का क्षय कर क्षणभर में केवलज्ञान के अक्षय आलोक को प्राप्त कर लिया।वे त्रिकालदर्शी हो गए।
गौतम के लिए कहा जाता है की एक बार अपने से छोटे साधुओं को केवल ज्ञान से विभूषित देखकर उनके मन में बड़ी चिंता उत्पन्न हुई और वे सोचने लगे की उन्हें अभी तक केवल ज्ञान किस कारण से प्राप्त नहीं हुआ है।
घट घट के अन्तर्यामी प्रभु महावीर ने अपने प्रमुख शिष्य गौतम की उस चिंता को समझ कर कहा - " गौतम ! तुम्हारा मेरे प्रति प्रगाढ़ स्नेह है।अनेक भवों में हम एक दूसरे के साथ रहे हैं।यहाँ से आयुपूर्ण कर हम दोनों एक ही स्थान पर पहुँचेंगे और फिर कभी एक दूसरे से विलग नहीं होंगे।मेरे प्रति तुम्हारा यह धर्मस्नेह ही तुम्हारे लिए केवल ज्ञान की प्राप्ति को रोके हुए है। स्नेहराग के क्षीण होने पर तुम्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति अवश्य होगी। "
अर्थात इस संवाद से यही प्रेरणा मिलती है की यदि हमें अपने आत्म ज्ञान रुपी दीपक को रोशन करना है तो मोह रुपी अंधकार से खुद को सम्पूर्णतया पृथक करना पड़ेगा।