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Thursday, August 13, 2015

तृष्णा है पतन का कारण -सूरिरामचन्द्र

तृष्णा है पतन का कारण
एक मनुष्य के पास उसके रहने के लिए एक कुटिया थी। एक दिन जब वह कुटिया से बाहर निकला तो उसने एक सुन्दर आलीशान प्रासाद (महल) देखा। वह प्रासाद देखते ही उसे अपनी कुटिया छोटी लगने लगी और उसके मन में आया कि मेरे पास भी एक ऐसा ही आलीशान महल हो तो ठीक रहे। यह इच्छा क्यों उत्पन्न हुई? जो आत्मा थोडी वस्तु में निर्वाह कर रही थी, अब बडप्पन से निर्वाह करने की उसमें अभिलाषा उत्पन्न हुई। यही पतन है।
संसार के पदार्थों की तीव्रतम अभिलाषा, उन्हें येन-केन-प्रकारेण प्राप्त करना और प्राप्त कर के उनका उपभोग करने की भावना होना; यही तृष्णा है और इसी से पतन की उत्पत्ति होती है। यह तृष्णा ही पतन का मूल है। यदि तृष्णा न हो तो गलत मार्ग पर अग्रसर होने की और पतन की संभावना ही नहीं रहती है। ‘नीति मार्ग से पतन नहीं होता, अनीति के मार्ग से पतन होता है’, यह बात मान लें, तब भी अनीति के मार्ग का उद्भव कहां से हुआ? यदि संयम रखा होता कि ‘मेरा कोई काम इसके बिना रुकता नहीं है, मैं कम साधनों में भी निर्वाह कर सकता हूं’, तो यह तृष्णा उत्पन्न होती क्या? नहीं होती।
तृष्णा आत्म-भाव को जगाने वाली है अथवा डुबाने वाली? पुद्गल की तृष्णा दोष स्वरूप होती है कि गुण स्वरूप? जो लोग पुद्गल की तृष्णा को भी लाभदायक मानते हैं, वे बहुत भारी भूल कर रहे हैं। उन्हें वस्तु-स्वरूप का ध्यान ही नहीं है। आत्मा को वे पहचानते ही नहीं हैं। पौद्गलिक पदार्थों की तृष्णा को उन्नति का साधन मूर्ख लोग मानते हैं। पौद्गलिक पदार्थों की तृष्णा धर्म-स्वरूप नहीं है। यह आत्मा का पतन है। जितने हम तृष्णा से दूर रहें, उतना ही हमारा उदय है और वही हमारी वास्तविक प्रगति है। आँखों से उसने महल देखा, तब उसकी इच्छा हुई कि वह या वैसा मुझे भी चाहिए। परिणाम स्वरूप उसका पतन हुआ। युवावस्था में इन्द्रियां बलिष्ठ होती हैं, चक्षु आदि दौडते हैं। ज्यों-ज्यों हम नवीन वस्तु देखते हैं, त्यों-त्यों उन्हें प्राप्त करने की हमारी इच्छा बलवती होती जाती है।
जब तक सुसंस्कार होते हैं, तब तक नीति स्थिर रहती है। सुसंस्कार मिटने पर तृष्णा अनीति की ओर ले जाती है, व्यक्ति तृष्णा की तरंगों में खिंचता हुआ सांसारिक वस्तुओं के प्रति लालायित हो जाता है, दुराचार की भावना उत्पन्न होती है, सदाचार नष्ट होता है, उसकी इच्छाओं में वृद्धि होती रहती है; परिणाम स्वरूप उसका मानव जीवन भ्रष्ट हो जाता है, उसका पतन हो जाता है। हमारा जीवन यौवन के ऐसे ही आवर्त में फंसकर नष्ट न हो जाए, करने योग्य करना शेष न रह जाए, इसलिए आत्मा विषयों से दूर हटकर मुक्ति-साधना में रत बने, ऐसा प्रयत्न करना अत्यंत आवश्यक है। यदि ऐसा हो सके तो फिर संसार में कोई अभाव नहीं रहेगा।-सूरिरामचन्द्र

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